प्रभु श्री राम ने किया समुद्र पर क्रोध तो थर्रा गया समुद्र

॥दोहा 57॥
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

॥चौपाई॥
लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

॥दोहा 58॥
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥

॥चौपाई॥
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥

॥दोहा 59॥
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥

॥चौपाई॥
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥

॥छन्द॥
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

॥दोहा 60॥
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥

भावार्थ – उधर प्रभु श्री राम को समुद्र की प्रार्थना करते हुए तीन दिन बीत गये लेकिन समुद्र नहीं माना तब श्री राम को उस पर क्रोध आ गया और कहा कि भय के बिना प्रीति संभव नहीं है। उन्होंने लक्ष्मण से अपना धनुष-बाण लाने को कहा ताकि वह समुद्र को सोख सकें। उन्होंने कहा जिस प्रकार मोहमाया में फंसे व्यक्ति को ज्ञान की बात सुनाना, अत्यंत लोभी से वैराग्य और क्रोधी से शांति की बातें करना फलदायी नहीं होता उसी तरह इसके आगे भी प्रार्थना करना व्यर्थ है। जब श्री राम ने अग्नि बाण चलाया तो समुद्र के अंत:स्थल में भयकंर पीड़ा हुई। सभी जीव जलने लगे। असहनीय पीड़ा से समुद्र अपना अंहकार त्याग कर प्रभु श्री राम के समक्ष प्रस्तुत हुआ और अपनी गलती का प्रायश्चित करने लगा और कहा प्रभु मेरा पांचो तत्वों का जड़ स्वभाव आपने बनाया है। सबको मर्यादा भी आपने दी है। आपने मुझे दंड देकर मेरा उपकार किया लेकिन यदि मैं सूखूंगा तो इसमें मेरी मर्यादा जो कि आप द्वारा दी गई उसका हनन होगा। प्रभु श्री राम ने समुद्र की इस विनम्र विनती से खुश हुए और समुद्र पार करने का उपाय पूछा। समुद्र ने बताया कि आपकी सेना में नल और नील नामक दो वानरों को यह वरदान प्राप्त है कि आपके प्रताप से उनके हाथ से पत्थर तैर सकते हैं आप उनसे रास्ता बनवा सकते हैं। हे प्रभु जो बाण आपने चलाया है उससे मेरे उत्तर तट पर रहने वाले दुष्ट मनुष्यों का वध करें। प्रभु श्री राम ने समुद्र की इस विनय को स्वाकार कर लिया। अब समुद्र श्री राम के चरण स्पर्श कर वापस अपने घर चला गया। प्रभु श्री राम के इस चरित्र का गुणगान तुलसीदास ने अपने विवेकानुसार गाया है। यह कलियुग में पापों को हरने वाला है। प्रभु श्री राम के गुण समूह सुखदायक, शंकाओं का नाश करने वाले और दुखों का दमन करने वाले हैं। हे मूर्ख मन तू भी संसार की मोहमाया को त्यागकर निरंतर प्रभु के गुणों का गान कर। प्रभु श्री राम का गुणगान कल्याणकारी है जो भी इसे आदर सहित सुनता है वह बिना कि अन्य साधन के भवसागर से पार हो जाता है अर्थात मुक्ति को पाता है।

 

॥श्री रामचरित मानस पंचम सोपान सुंदरकांड समाप्त॥
॥सियावर रामचंद्र की जय॥
॥पवनसुत बजरंग बलि की जय॥

अन्य सुंदरकांड