श्री राम का समुद्र की ओर प्रस्थान एवं रावण-मंदोदरी संवाद

॥दोहा 33॥
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥

॥चौपाई॥
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥
अब बिलंबु केह कारन कीजे। तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥

॥दोहा 34॥
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥

॥चौपाई॥
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

॥छन्द॥
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥१॥

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥२॥

॥दोहा 35॥
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥

॥चौपाई॥
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥

॥दोहा 36॥
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥

॥चौपाई॥
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
फमंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥

भावार्थ – श्री हनुमान प्रभु श्री राम के चरणों में नतमस्तक हुए कहते हैं कि हे प्रभु यदि आपकी कृपा हो तो असंभव को भी संभव किया जा सकता है। हे प्रभु मुझ पर सदा अपनी कृपा बनाए रखना। भगवान श्री राम ने हनुमान की भक्ति भावना को देखकर एवमअस्तु कहा अर्थात हनुमान को आशीर्वाद देते हुए मां भवानी से कहा कि मां ऐसा ही हो। इसके बाद प्रभु श्री राम ने सुग्रीव को पास बुलाकर कहा कि अब चलने में देर नहीं करनी चाहिये। पूरी वानर सेना इकट्ठी होकर समुद्र की और बढ़ने लगी। सेना के शौर्य को देखकर धरती से लेकर अंबर तक सबकुछ कांपने लगा। इधर जैसे ही प्रभु श्री राम अपने कदम बढ़ाने लगे उधर माता सीता को शुभ शकुन महसूस होने लगे तो रावण के यहां अपशकुन दिखाई देने लगे। लंका की जनता में हनुमान द्वारा लंका जलाये जाने का खौफ अभी तक व्याप्त था। लंका वासी सोचने लगे जिसके सिर्फ एक दूत ने पूरी लंका को खाक कर दिया अगर वो स्वयं आ पंहुचे तो क्या हश्र होगा। सारे हालातों की खबर रावण की पत्नी मंदोदरी को भी हो रही थी। उसे भी भय लगने लगा था उसने रावण के सामने अपनी शंका जाहिर की और नाना प्रकार से रावण को समझाने की कोशिश की लेकिन अभिमानी रावण मंदोदरी की बातों को गंभीरता से लेने की बजाय उसका मज़ाक उड़ाने लगा कि जिससे देवता तक थर्र थर्र कांपते हैं उस लंकापति की पत्नी वानरों और दो सन्यासियों से डर रही है।

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