Durgashtami Vrat 2023: दुर्गाष्टमी

'ज्योतिर्विद डी डी शास्त्री'

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जय माता दी ….मां शक्ति की दस महा विद्या का पूजन वर्ष के विभिन्न मासों में किया जाता है और यह दस महा विद्याओं का पूजन गुप्त साधना के रुप में भी जाना जाता है. धूमावती देवी के स्तोत्र पाठ व सामूहिक जप का अनुष्ठान होता है. काले वस्त्र में काले तिल बांधकर मां को भेंट करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.!
महाविद्या आराधना जो अधिकांश तान्त्रिक साधकों के लिए मुख्य पूजा साधना होती है और साधारण भक्तों को भी अचूक सिद्धि प्रदान करने वाली होती है. महाविद्या उपासना में भक्त एकांत वास में साधना करते हुए अपने को सबल बनाने का प्रयास करता है देवी कि उपासन अका एक अभेद रुप जब साधक हृदय में समाहित होता है.!
धर्म ग्रंथों के अनुसार मां धूमावती अपनी क्षुधा शांत करने के लिए भगवान शंकर को निगल जाती हैं. इस कारण मां के शरीर से धुंआ निकलने लगा और उनका स्वरूप विकृत और श्रृंगार विहीन हो जाता है जिस कारण उनका नाम धूमावती पड़ता है.!

-:’माँ धूमावती मंत्र’:-
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा
ॐ धूं धूं धूमावती ठ: ठ:
देवी धूमावती के विषय में पुराणों में कहा गया है कि जब देवी भगवान शिव से कुछ भोजन की मांग करती हैं. इस पर महादेव पार्वती जी से कुछ समय इंतजार करने को कहते हैं. समय बीतने लगता है परंतु भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती और देवी भूख से व्याकुल होकर भगवान शिव को ही निगल जाती हैं. महादेव को निगलने पर देवी पार्वती के शरीर से धुआँ निकलने लगाता है. धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावती होगा. भगवान कहते हैं तुमने जब मुझे खाया तब विधवा हो गई अत: अब तुम्हारी इसी रुप पूजा होगी. तब से माता धूमावती इसी रुप में पूजी जाती हैं.!

-:’दुर्गा अष्टमी महत्व’:-
देवी का स्वरुप मलिन और भयंकर प्रतीत होता है.यह श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, खुले केश रुप में होती हैं. मां धूमावती के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है. धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक मजबूत तथा सुदृढ़ बनता है. नेत्रों में प्रबल तेज व्याप्त होता है, शत्रु भयभीत रहते हैं. किसी भी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा क्षीण हो जाती है. मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है तथा भय का नाश होता है. तंत्र की कई क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के माध्यम से साधक के समक्ष खुल जाता है. नष्ट व संहार करने की सभी क्षमताएं देवी में निहीत हैं.!

सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है. चौमासा देवी का प्रमुख समय होता है जब देवी का पूजा पाठ किया जाता है. माँ धूमावती जी का रूप अत्यंत भयंकर हैं इन्होंने ऐसा रूप शत्रुओं के संहार के लिए ही धारण किया है. यह विधवा हैं, केश उन्मुक्त और रुक्ष हैं. इनके रथ के ध्वज पर काक का चिन्ह है. इन्होंने हाथ में शूर्पधारण कर रखा है, यह भय-कारक एवं कलह-प्रिय हैं. ऋषि दुर्वासा, भृगु, परशुराम आदि की मूल शक्ति धूमावती हैं. माँ की पूजा बहुत कठिन है जो इनकी भक्ति को पा लेता है उसके सभी कष्टों का नाश हो जाता है.!

-:॥शिव उवाच:॥:-
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत ॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥2॥
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥3॥
गोपनीयं प्रयत्‍‌नेनस्वयोनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यंस्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत्कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥

॥ अथ मन्त्रः ॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लींचामुण्डायै विच्चे ॥
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालयज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वलहं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥

॥ इति मन्त्रः ॥
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि ।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे ॥2॥
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥3॥
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ॥4॥
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्‍‌नी वां वीं वूं वागधीश्‍वरी ।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥5॥
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥6॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं ।
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥7॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे ॥8॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रंमन्त्रजागर्तिहेतवे ।
अभक्ते नैव दातव्यंगोपितं रक्ष पार्वति ॥9॥
यस्तु कुञ्जिकाया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् ।
न तस्य जायतेसिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥10॥
॥ इति कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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