Shri Vaidyanath Jyotirlinga: श्रावण विशेषांक, श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

'ज्योतिर्विद डी डी शास्त्री'

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ॐ मृत्युंजयमहादेवं त्राहि मां शरणागतम्,जन्ममृत्युजराव्याधिपीडितं कर्मबन्धनै:॥
ॐ नमः शिवाय……भारत देश धार्मिक आस्था और विश्वास का देश है.तथा ईद देश में अनेकानेक धर्मस्थल है.इन धर्मस्थलों “ज्योतिर्लिंगों” को विशेष स्थान प्राप्त हैं,और इन दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों की विशेष रुप से पूजा की जाती है.!

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम् अमलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥

श्रीवैद्यनाथ मन्दिर भारतवर्ष के झारखण्ड राज्य के देवघर नामक स्‍थान में अवस्थित एक प्रसिद्ध मंदिर है,शिव का एक नाम ‘वैद्यनाथ भी है,इस कारण लोग इसे ‘वैद्यनाथ धाम’ भी कहते हैं,यह एक सिद्धपीठ है,इस कारण इस लिंग को “कामना लिंग” भी कहा जाता हैं.।

देवघर में शिव का अत्यन्त पवित्र और भव्य मन्दिर स्थित है,हर वर्ष सावन के महीने में श्रावण मेला लगता है जिसमें लाखों श्रद्धालु “बोल-बम.!” “बोल-बम.!” का जयकारा लगाते हुए बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने आते हैं,यह सभी श्रद्धालु सुल्तानगंज से पवित्र गंगा का जल लेकर लगभग सौ किलोमीटर की अत्यन्त कठिन पैदल यात्रा कर बाबा को जल चढाते हैं.।

एक धार्मिक मान्यता है कि परली ग्राम के निकट स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वास्तविक ज्योतिर्लिंग है. “परलीग्राम” निज़ाम हैदराबाद क्षेत्र के अंतर्गत पड़ता है.यहां का मन्दिर अत्यन्त पुराना है,जिसका जीर्णोद्धार रानी अहल्याबाई ने कराया था.लेकिन शिव पुराण के अनुसार झारखण्ड प्रान्त के देवघर में श्री वैद्यनाथ शिवलिंग ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है.देवघर को ही चिताभूमि के नाम से जाना जाता है. कहते हैं जिस समय भगवान शंकर सती के शव को कंधे पर लेकर इधर-उधर उन्मत्त की तरह घूम रहे थे,उसी समय इस स्थान पर सती का हृतिपंड अर्थात ह्रदय का भाग गलकर गिर पड़ा था.भगवान शंकर ने सती के उस हृतिपंड का दाह-संस्कार उक्त स्थान पर किया था,जिसकारण उस स्थानका नाम चिता भूमि पड़ गया.!
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने,सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं,श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि॥

-:’श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग कथा’:-
एक बार राक्षस राज रावण ने हिमालय पर भगवान शिव की घोर तपस्या की,तपस्या में रावण ने एक एक करके नौ सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिया.दसवें सिर के समय भोलेनाथ प्रसन्न हो उठे और रावण को पहले की भांति करते हुए वर मांगने को कहा.रावण ने उस स्थान पर स्थापित शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति मांगी.भगवान शिव ने इसकी अनुमति देते हुए कहा कि यदि तुम इस लिंग को ले जाते समय रस्ते में धरती पर रखोगे तो यह वहीं स्थापित हो जाएगा.शिवलिंग को ले जाते समय रावण जैसे चिताभूमि में प्रवेश किया उसे लघुशंका करने कि प्रवृति हुई.उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा किया और लघुशंका करने चला गया.इधर शिवलिंग भरी होने लगा जिसके कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया.वह लिंग वही अचल हो गया.तब से यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाने लगा. यह मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला माना जाता है. कहते हैं श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग कि लगातार आरती-दर्शन करने से लोगों को रोगों से मुक्ति मिलती है.I

-:’शिव ताण्डव स्तोत्रम् {रावण कृत}’:-
रावण का शिवताण्डव स्तोत्र भक्ति-भाव से भरपूर और ऊर्जस्वी शैली में निबद्ध उत्कृष्ट रचना है. इसके सामासिक अनुनादी स्वर मन्त्रमुग्ध कर देते है,राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते थे,रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो,उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता,रावण एक अति बुद्धिमान ब्राह्मण तथा शंकर भगवान का बहुत बड़ा भक्त था.वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था. वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं.वह अपनी रामायण में हनुमान जी के रावण दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं.:-
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता:।।
आगे वे लिखते हैं “रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षण युक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता.।”

-:’रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्रम्’:-
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले,गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं,चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी,विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके,किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि,कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे,मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः,श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम् ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं,महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-,प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः,कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं,गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं,गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः,समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्,विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः,शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं,परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी,महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः,शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं,पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं,विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं,यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां,लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥ ॥
॥.इति शिव तांडव स्तोत्रम् संपूर्णम्.॥

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