ॐ सर्वेश्वराय विद्महे, शूलहस्ताय धीमहि.तन्नो रूद्र प्रचोदयात् ||
ॐ नमः शिवाय……भारत देश धार्मिक आस्था और विश्वास का देश है.तथा ईद देश में अनेकानेक धर्मस्थल है.इन धर्मस्थलों “ज्योतिर्लिंगों” को विशेष स्थान प्राप्त हैं,और इन दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों की विशेष रुप से पूजा की जाती है.!
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालं ओम्कारम् अमलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है,इस स्थान पर नर्मदा के
दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है,इस टापू को मान्धाता-पर्वत और शिवपुरी कहते हैं,उज्जैन से खण्डवा जाने वाली रेलवे लाइन पर मोर टक्का नामक स्टेशन है,वहाँ से यह स्थान 10 मील दूर है.!
यहाँ ॐकारेश्वर और मामलेश्वर दो पृथक-पृथक लिंग हैं,परन्तु ये एक ही लिंग के दो स्वरूप हैं, श्री ॐ कारेश्वर लिंग को स्वयम्भू समझा जाता है,नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर होकर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है,दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है,इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है,पूर्वकाल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न किया था,इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा.।
इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है,भीतर अँधेरा रहने के कारण
यहां निरंतर प्रकाश जलता रहता है,ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है,स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है,इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है,संपूर्ण मान्धाता-पर्वत ही भगवान् शिव का रूप माना जाता है,इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं,लोग भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं,कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहां बहुत भारी मेला लगता है,यहां लोग भगवान् शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं,रात्रि की शिव आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है,तीर्थ यात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिए.।
ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं,एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है,यह नर्मदा के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है,पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है,लिंग के दो स्वरूप होने की कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है.।
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैवमान्धातृपुरे वसन्त-मोङ्कारमीशं शिवमेकमीडे॥
शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता खंड के अध्याय 18 में श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा और उसकी महिमा दी गयी है।
ऋषियों ने कहा -: महाभाग सूतजी.! आपने अपने भक्त की रक्षा करने वाले महाकाल नामक शिवलिंगकी बड़ी अद्भुत कथा सुनायी है,अब कृपा करके चौथे ज्योतिर्लिंग का परिचय दीजिये जो ओंकारतीर्थ में सर्व पातकहारी परमेश्वर का जो ज्योतिर्लिंग है, उसके आविर्भाव की कथा सुनाइये.।
सूतजी बोले -: महर्षियो.! ओंकारतीर्थ में परमेश संज्ञक ज्योतिर्लिंग जिस प्रकार प्रकट हुआ,वह बताता हूँ,आप सभी श्रद्धा विश्वास पूर्वक सुने.!
एक समय की बात है भगवान् नारद मुनि गोकर्ण नामक शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे.।
कुछ काल के बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहाँ से गिरि राज विन्ध्य पर आये और विन्ध्य ने वहाँ बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया,मेरे यहाँ सब कुछ है,कभी किसी बात की कमी नहीं होती है,इस भाव को मन में लेकर विन्ध्याचल नारदजी के सामने खड़ा हो गया,उसकी वह अभिमान भरी बात सुनकर अहंकारनाशक नारद मुनि लंबी साँस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये,यह देख विन्ध्य पर्वत ने पूछा आपने मेरे यहाँ कौन-सी कमी देखी है.? आपका इस तरह लंबी साँस खींचने का क्या कारण है.?
नारदजी ने कहा :- भैया.! तुम्हारे यहाँ सब कुछ है,फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है,उसके शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों में भी पहुँचा हुआ है,किंतु तुम्हारे शिखर का भाग वहाँ कभी नहीं पहुँच सका है.।
सूतजी कहते हैं -: ऐसा कहकर नारदजी वहाँ से जिस तरह आये थे,उसी तरह चल दिये,परंतु विन्ध्य पर्वत मेरे जीवन आदि को धिक्कार है ऐसा सोचता हुआ मन-ही-मन संतप्त हो उठा,अच्छा.! अब मैं विश्वनाथ भगवान् शम्भु की आराधना पूर्वक तपस्या करूँगा ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान् शंकरकी शरण में गया.!
तदनन्तर जहाँ साक्षात् ओंकार की स्थिति है,वहाँ प्रसन्नत्ता पूर्वक जाकर उसने शिव की पार्थिव मूर्ति बनायी और छः मास तक निरन्तर शम्भु की आराधना करके शिव के ध्यान में तत्पर हो वह अपनी तपस्या के स्थान से हिला तक नहीं,विन्ध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर पार्वतीपति प्रसन्न हो गये,उन्होंने विन्ध्याचल को अपना वह स्वरूप दिखाया,जो योगियो के लिये भी दुर्लभ है,भगवान् प्रसन्न होकर उस समय उससे बोले -: विन्ध्य.! तुम मनोवांछित वर मागो.मैं भक्तों को अभीष्ट वर देने वाला हूँ और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ.।
विन्ध्य बोला -:देवेश्वर शम्भो.! आप सदा ही भक्तवत्सल हैं,यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिये, जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो,भगवान् शम्भु ने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा पर्वतराज विन्ध्य.! तुम जैसा चाहो वैसा करो, इसी समय देवता तथा निर्मल अन्तः करण वाले ऋषि वहाँ आये और शंकरजी की पूजा करके बोले -:
प्रभो.! आप यहाँ स्थिररूप से निवास करें,देवताओं की यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और लोकों को सुख देने के लिये उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया,वहाँ जो एक ही ओंकारलिंग था, वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गए.!
प्रणव में जो सदाशिव हैं वह ओंकार नाम से विख्यात हुए और पार्थिवमूर्ति में जो शिवज्योति प्रतिष्ठित हुई,उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई (परमेश्वरको ही अमलेश्वर भी कहते हैं).।
इस प्रकार ओंकार और परमेश्वर -: यह दोनों शिवलिंग भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं, उस समय देवताओं और ऋषियोंने उन दोनों लिंगों की पूजा की और भगवान् वृषभध्वज को संतुष्ट करके अनेक वर प्राप्त किये,तत्पश्चात् देवता अपने-अपने स्थान को गये और विन्ध्याचल भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगा,उसने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक परिताप को त्याग दिया.।
जो पुरुष इस प्रकार भगवान् शंकर का पूजन करता है,वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता और अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है,इसमें तनिक भी संशय नहीं।
सूतजी कहते हैं -: महर्षियो.! ओंकार में जो ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और उसकी आराधना से जो फल मिलता है,वह सब यहाँ तुम्हें बता दिया,इसके बाद मैं उत्तम केदार नामक ज्योतिर्लिंगका वर्णन करूँगा।
ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन :
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम :
———:शिव स्तोत्र :—————-
{यदि आप ऋण, पातक, दुर्भाग्य आदि की निवृत्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ करें.निश्चित ही गिरिजापति आपकी मनोकामना पूर्ण करींगें.!}
जय विश्वैक-वेद्येश, जय नागेन्द्र-भूषण,जय गौरी-पते शम्भो, जय चन्द्रार्ध-शेखर.।।
जय कोट्यर्क-संकाश,जयानन्त-गुणाश्रय,जय रुद्र-विरुपाक्ष, जय चिन्त्य-निरञ्जन.।।
जय नाथ कृपा-सिन्धो,जय भक्तार्त्ति-भञ्जन.जय दुस्तर-संसार-सागरोत्तारण-प्रभो.।।
प्रसीद मे महा-भाग, संसारार्त्तस्य खिद्यतः,सर्व-पाप-भयं हृत्वा,रक्ष मां परमेश्वर.।।
महा-दारिद्रय-मग्नस्य,महा-पाप-हृतस्य च.महा-शोक-विनष्टस्य,महा-रोगातुरस्य.।।
ऋणभार-परीत्तस्य, दह्यमानस्य कर्मभिः,ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य, प्रसीद मम शंकर.।।
——:’फल-श्रुतिः’:——–
दारिद्रयः प्रार्थयेदेवं, पूजान्ते गिरिजा-पतिम्,अर्थाढ्यो वापि राजा वा, प्रार्थयेद् देवमीश्वरम्.।।
दीर्घमायुः सदाऽऽरोग्यं,कोष-वृद्धिर्बलोन्नतिः.ममास्तु नित्यमानन्दः,प्रसादात् तव शंकर.।।
शत्रवः संक्षयं यान्तु, प्रसीदन्तु मम गुहाः.नश्यन्तु दस्यवः राष्ट्रे, जनाः सन्तुं निरापदाः.।।
दुर्भिक्षमरि-सन्तापाः, शमं यान्तु मही-तले.सर्व-शस्य समृद्धिनां, भूयात् सुख-मया दिशः.।।
ओ३म नमः शिवाय.! नमः शिवाय.! हर हर भोले नमः शिवाय.II
ओ३म नमः शिवाय.!नमः शिवाय.! हर हर भोले नमः शिवाय.II
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