योग के प्रकार की बात करें तो योग में कई तरह के अभ्यासों और तरीकों को शामिल किया गया है। योग का पहला प्रकार ज्ञान योग या दर्शनशास्त्र के नाम से जाना जाता है। ज्ञान योग में अध्ययन व अध्यापन पर जोर दिया जाता है। विशेषकर दर्शनशास्त्र पर, यह किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। इसके बाद नंबर आता है भक्ति योग जिसे भक्ति-आनंद का पथ के नाम से भी जाना जाता है।
अष्टांग योग (Ashtanga Yoga), योग की दुनिया में इसका एक अलग ही स्थान है। इस योग का अभ्यास सबसे ज्यादा किया जाता है, ऐसा मानना है योग विशेषज्ञों का। ऐसा क्यों है आज हम इस लेख में यही जानेंगे। इस लेख में आपको अष्टांग योग क्या है?, योग में अष्टांग योग का क्या महत्व है?, अष्टांग योग कैसे करें?, अष्टांग योग के आठ अंग, अष्टांग योग के क्या लाभ हैं? हम इसके बारे में भी विस्तार से जानेंगे। तो आइये जानते हैं अष्टांग योग के बारे में –
अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) में आत्मिक शुद्धिकरण के लिए आठ आसनों का एक संकलन हैं। अष्टांग योग में कुल आठ चरणों के बारे में बताया गया है। इन आठों का पालन करने व अभ्यास करने से आप अपने आंतरिक मन को शुद्ध करने में सफल होते हैं। इस योग के ये आठ अंग हैं: – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा ध्यान और समाधि।
अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) के अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति होती है। जो हमारे भीतर से अविद्या नष्ट करती है। अविद्या का नाश हो जाने से अंत:करण की अपवित्रता खत्म हो जाती है और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जैसे-जैसे साधक योगांगों का कुशलतापूर्वक अभ्यास करता है, वैसे-वैसे ही उसके चित्त की गंदगी साफ होती जाती है और मलिनता के खत्म होने से व्यक्ति के चित्त में ज्ञान की ज्योति जलती है।
अष्टांग योग का अभ्यास करने के लिए साधक को सबसे पहले इस आसन के आठों अंगों को विस्तार व ध्यान पूर्वक समझना होगा। इन्हीं आठ अंगों में इस योग का सार छीपा है। अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) के इन अंगों को बीना समझे आप इसका योग का अभ्यास सही तरीके से नहीं कर सकते हैं। इसलिए आपको इसके आठों अंगों का सार लेना होगा। तो आइये जानते हैं अष्टांग योग के आठ अंगों के बारे में –
यम – अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) पहला अंग है। इस अंग में भी पांच कड़ियां जो इसको परिभाषित करते हैं। इसमें पांच सामाजिक नैतिकता दिए गए तो इस प्रकार हैं –
अहिंसा – अहिंसा शब्द व विचारों के साथ अपने कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना ही इसका उद्देश्य है।
सत्य – सत्य का आशय है कि विचारों के व्यवहार में सत्यता होना चाहिए। जैसा विचार मन में हो वैसा ही बोलना चाहिए। मन कुछ व वाणी पर कुछ यह नहीं चलेगा।
अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना, चाहे धन व संपत्ति का और कर्म का साधक किसी भी तरह की चोरी न करें।
ब्रह्मचर्य – शब्द से ही पता चलता है कि इसका क्या अर्थ है। इसका दो अर्थ हैं चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रियों से जनित सुखों में संयम बरतना है। यानी की साधक का भोग विलास से पूरी तरह से दूर रहना।
अपरिग्रह – इसका अर्थ है कि साधक किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना साथ ही दूसरों की वस्तुओं की इच्छा न करना शामिल है।
इस योग के पाँच व्यक्तिगत नैतिकता नियम हैं जो निम्नलिखित है –
शौच – शरीर और मन की शुद्धि करना शामिल है। साधक का मन व तन शुद्ध होना आवश्यक है।
संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना। इसमें साधक का संतोषी होना आवश्यक है। किसी भी चीज की ईच्छा रखना।
तप – स्वयं से अनुशासित रहना और विचलित न होता।
स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना। अपने कमियों को स्वयं ही दूर करना।
ईश्वर- परिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए। अपना सब कुछ ईश्वर को सौंप देना चाहिए।
आसन
स्थिर तथा सुख पूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। योग में अनेक आसनों की कल्पना की गई है।