भारतीय विद्वान इस सभ्यता को अनादि परंपरा से उत्पन्न हुआ मानते हैं। परंतु पश्चिमी विद्वानों का मत है कि आर्यों का एक समुदाय भारत वर्ष में कहीं और से लगभग 1500 ईसा पूर्व आया और इनके आने के बाद इस सभ्यता की नींव पड़ी। हालाँकि भारत मे आर्यो के आने का प्रमाण अभी तक न ही किसी पुरातत्त्व खोज में और न ही किसी डी एन ए अनुसंधानों में मिला है।

सोलह संस्कार

हिंदु धर्म एक प्राचीन धर्म है, इस धर्म के लिए विस्तार के लिए हमारे ऋषि मुनि महात्माओं नें बड़े तप और शौध किए। हिंदु धर्म को सनातन धर्म भी बोला जाता है। जीवन को धर्म के साथ जोड़ने के लिए इंसान के पैदा होने से पहले से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार बताए गए हैं।

ये हैं सोलह संस्कार

1. गर्भाधान – विवाह के बाद गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पहले कर्तव्य के रुप में इस संस्कार को स्थान दिया गया है। उत्तम संतान कि प्राप्ति और गर्भाधान से पहले तन मन को पवित्र और शुद्ध करने के लिए यह संस्कार करना आवश्यक होता है।

2. पुंसवन – पुंसवन गर्भाधान के तीसरे माह के दौरान किया जाता है। इस दौरान गर्भस्थ शिशू का मष्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय में ये संस्कार करके गर्भस्थ शिशु के संस्कारों की नीव रखी जाती है।

3. सीमन्तोन्नयन – इस संस्कार को सीमंत संस्कार भी कहा जाता है। इसका अर्थ होता है सौभाग्य समपन्न होना। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भपात रोकने के साथ साथ शिशु की माता पिता के जीवन की मंगल कामना भी होता है।

4. जातकर्म – इस संसार में आने वाले शिशु को बुद्धी स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना करते हुए सोने के किसी आभूषण या टुकड़े से गुरुमन्त्र के उच्चारण के साथ शहद चटाया जाता है। इसके बाद मां बच्चे को स्तन पान कराती है।

5. नामकरण – जन्म के 11वें दिन शिशु का नामकरण संस्कार रखा जाता है। इसमें ब्राह्मण द्वारा हवन प्रक्रिया करके जन्म समय और नक्षत्रो के हिसाब से कुछ अक्षर सुझाए जाते हैं जिनके आधार पर शिशु का नाम रखा जाता है।

6. निषक्रमण – जन्म के चौथे माह में यह संस्कार निभाया जाता है। निष्क्रमण का मतलब होता है बाहर निकालना इस संस्कार से शिशु के शरीर को सुर्य की गर्मी और चंद्रमा की शीतलता से मुलाकात कराई जाती है। ताकि वह आगे जाकर जलवायु के साथ तालमेल बैठा सके।

7. अन्नप्राशन – जन्म के 6 महिने बाद इस संस्कार को निभाया जाता है। जन्म के बाद शिशु मां के दूध पर ही निर्भर रहता है, 6 महिने बाद उसके शरीर के विकास के लिए अन्य प्रकार के भोज्य पदार्थ दिए जाते हैं।

8. चूड़ाकर्म – चूड़ा कर्म को मुंडन भी कहा जाता है संस्कार को करने के बच्चे के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ष का समय उचित माना गया है। इस संस्कार में जन्म से सिर पर उगे अपवित्र केशों को काट कर बच्चे को प्रखर बनाया जाता है।

9. विद्यारंभ – जब शिशु की आयु हो जाती है तो इसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इस संस्कार से बच्चा अपनी विद्या आरंभ करता है, इसके साथ साथ माता पिता औऱ गुरुओं को भी अपना दायित्व निभाने का अवसर मिलता है।

10. कर्णवेध – कर्णवेध संस्कार का आधार वैज्ञानिक है। बालक के शरीर की व्याधि से रक्षा करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य होता है। कान हमारे शरीर का मुख्य अंग होते हैं, कर्णभेद से इसकि व्याधियां कम हो जाती है और श्रवण शक्ति मजबूत होती है।

11. यज्ञोपवीत – यज्ञोपवीत यानी उपनयन संस्कार में जनेऊ पहना जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है।

12. वेदारंभ – इस संस्कार से इंसान को वेदो का ज्ञान लेने की शुरुआत की जाती है। इसके अलावा ज्ञान और शिक्षा को अपने अंदर समाहित करना भी इस संस्कार का उद्देश्य है।

13. केशांत – गुरुकुल में वेद का ज्ञान प्राप्त करने के बाद आचार्यों की उपस्थिति में यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार गृहस्थ जीवन में कदम रखने की शुरुआत माना जाता है।

14. समावर्तन – केशांत संस्कार के बाद समावर्तन संस्कार किया जाता है, इस संस्कार से विद्या पूर्ण करके समाज में लौटने का संदेश दिया जाता है।

15. विवाह – प्राचीन समय से ही स्त्री और पुरुष के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। सही उम्र होने पर दोनो का विवाह करना उचित माना जाता है।

16. अन्त्येष्टि – इंसान की मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार कराया जाना ही अंत्येष्टि कहा जाता है। हिंदु धर्म के अनुसार मृत शरीर का अग्नि से मिलन कराया जाता है।

अन्य मंत्र